सोच.....?


हमें विकसित करने का काम हमारी सोच ही करती है। पर सोच सोच का फर्क होता है क्योंकि मूर्खता भी सोच का ही प्रमाण है। 
यदि सोच में जरा सा भावनाओं का उल्लेख हो तो वही सोच दयालु बना देती है 
और अगर सोच में जरा सी कठोरता मिला दी जाए तो वही सोच आपको विकट बना देगी।
सारा खेल सोच का ही है।
सोचने में हमारा कुछ बिगड़ता या कम नही होता परंतु समस्या इस बात की है कि सोचने के लिए हमारे पास समय पर्याप्त नही होता ।
हमे अपनी कुछ निजी बातो को भी तो सोचना है।
जैसे कल घूमना है उनसे मिलना है उन्हें अपनी बातों में कैसे उलझाना है और भी बहुत कुछ जो सिर्फ हमारे निजी मन को खुश रखे ।
हमारे पास ऐसा कुछ सोचने का समय नही है जिससे हमारा भविष्य उज्जवल हो हम तो बस आज का ही सोचेंगे ।
क्योंकि हमारे कुछ बुद्धिमान दोस्तो का कथन है कि कल की सोच में अपना आज बर्बाद मत कर बेटा खुल के जियो कल जो होगा देखा जाएगा ।
लेकिन फिर भी हम जब कभी कोई शिवखेड़ा या डेल कारनेगी जैसे लेखको की किताब पढ़ते है तो ऐसा नही है कि हमारी सोच में कोई उबाल नही आता। 
आता है पर समस्या ये है कि हम सिर्फ सोचते ही है सोच को पूरा करना हम क्यों सोचें।