आलोचनाएँ.....?

वक़्त पड़ने पर और अवसर मिलने पर हम ईश्वर की भी आलोचना करने से पीछे नही हटते।
पर बड़ी बात ये है कि हमें खुद की आलोचनाएं रास नही आती ।
पर क्यों.....?
क्योंकि हमने कभी अपने अलावा किसी के विषय मे सोचना ही नही चाहा ।
हम भूल जाते है की परिणाम प्रत्यक्ष ही होगा

हमने जो किया उसे भुगतना ही होगा चाहे वो अच्छा हो या बुरा ।
खुद में हम इतना बिलुप्त हो जाते है कि हमे याद ही नही रहता कि बुराई एक तरह का अधर्म ही है
और हम बिना बिचार किये बुराइयों के बाद से पुल बांध देते है।
कभी हम प्रयास भी करे कि बुराई मानवता को अंदर से हिला देने वाला जहर है इस लिए बुराई नही करेंगे ।
पर ये प्रयास कुछ क्षण का ही होता है ।
और हम फिर शुरू हो जाते है।
कभी भी बुराई करने से पहले ये अवश्य सोच ले कि क्या जिसकी बुराई में हम लीन है उसकी बुराई उसके सामने भी कर सकते है क्या।
और अगर है तो फिर बस उसे बुलाइये और उसके सामने बोलिये ।
और अगर नही कर सकते या हिम्मत नही है तो फिर बुराई से पीछे हट जाइये और कभी भी किसी की बुराई मत करिए।
क्यों इंसान का स्पष्टवादी होना ही बेहतर है बदले में भले ही कोई नाराज़ ही क्यों न हो जाये।
और रही बात खुद की आलोचना की होने दीजिये। इसलिए आलोचना से नही अधर्म से डरिये ।
आलोचनाएँ तो भगवान की भी हो जाती है।