आरोप.....?

इंसान द्वारा चल या अचल वस्तुओं पर कारण या अकारण शक या विस्वास के द्वारा सच या झूठे आरोप लगाए लगाए जाते है।
जो कभी सच तो कभी झूठे साबित होते है ।
जब सच साबित हुए तो सर गर्व से उठ गया और जब झूठे साबित हुए तो
एक बात ही इससे मुक्त कराती है कि हमे तो सुरु से ही लग रहा था कि आप गलत नही हो सकते बस मन को मानने पे मजबूर करने के लिए आरोपो का सहारा लेना पड़ा।
पर सवाल आरोपो का नही है सवाल है कि हमे हक़ किसने दिया किसी को आहत करने का हम होते कौन है किसी को दुखी करने के लिए
जब खुद पे गुजरती है तो कई दिन सोचने पे गुज़र जाते है मन ही मन कितनी घुटन होती है।
पर अपनी कठिनाइयों को क्यों नही याद करते हम जब किसी पर झूठा आरोप लगा देते है।
जरूरी तो नही की हर किसी को हम गुनाहगार की दृष्टि से ही देखे हम क्या मानवता खत्म हो गयी है हमारी या फर हम इंसान के रूप में भेड़िया बन कर दुनिया मे आये है जिसके लिए न दुनिया महत्व रखती है और न ही दुनिया वाले अगर कोई महत्वपूर्ण है तो वो है स्वयं की खुशियां।
कभी तो आरोप लगाते समय एक बार रुककर सिर्फ ये सोच ले कि क्या हमारा आरोप सत्य है
भले ही हममे ताकत हो झूठ को सच साबित करने की पर सत्य तो सत्य ही है ना