रूहानी यादें बचपन की.....?

ना कोई चिंता न कोई भय, ना कमाने की लालसा न तजुर्बे की फिक्र, न समाज का कहर न आरक्षण की जरूरत, बचपन इतनी जल्दी कैसे गुजर गया।
सपने में सिर्फ परियो की कहानी होती थी।
पास में दादी नानी की मुह जुबानी होती थी।

पल भर में ऐसे नाराज़गी की असमाँ उठा लेंगे ।
अगले ही पल कभी न रोने की कसमें खा लेंगे।


मित्र की बातों में फरेब न होता था।
 बात बुरी लगने पर खुलकर रोता था।

माँ के दूर जाने पर दुनिया हिला देते थे ।
 गोद मे चढ़ने के लिए खुद को गिरा लेते थे।

शर्म भी उस दौर में मा के कहने पे आती थी।
 खेल के नाम पे सारी नीद भाग जाती थी।

उन दोस्तो को खोजने में आंखे भर आती है।
 आज भी वो है करीब पर नियति बदल जाती है।

हर काम का बीणा उठाने का हौसला था।
 एक ही बात को हर बार पूछने का अमला था।

थकान तो एक कहानी में उतर जाती थी।
 जैसे ही किस्से में राजा की रानी आती थी।

वो पल तो याद भी नही अब, जो गुज़रे थे हस के।
 अब तो समझदारी के दलदल में पल गुजरते है रो के।


खेल भी अजब थे खिलाड़ी भी अजब थे।
 हार और जीत तो दोनों ही गज़ब थे।

इस समझदारी के झोल में कहि सुख छोड़ आये हम।
 खुशियां तो असल मे वही थी जिसे कुर्वा कर आये हम।

आज तो तरस जाती है आंखे खुलकर रोने को ।
नींद तो आती है पर फिर भी तरसते है सोने को।

वो बचपन था या फिर था वो बचपना।
आज उसी को सोचने को मन है बना।
पर आज तक समझ ये नही आया।
बचपन इतनी जल्दी कैसे गुजर गया।