लड़ाई आरक्षण की.....?

आरक्षण के पीछे लड़ते नित नित देखा लोगो को।
दया धर्म को छोड़ बिरोधी बनते देखा लोगो को।

क्यों हार जीत का ये रुतवा द्वंद युद्ध करवाता है।
क्या यही हमारी ताकत को हमसे ही अज़माता है।

क्या आरक्षण में इतनी हिम्मत, हर बार गज़ब कर डालेगा।

आने वाली संतानों को, किस मुह से आरक्षित पालेगा।

क्या बतलायेगा उनको की भीख मांगके पाया हूं।
अगले के हिस्से की रोटी मैं छीनकर के खाया हूँ।

क्या दिया नही भगवान तुम्हे बुद्धि बिद्या माथों पे।
फिर क्यों पीछे हटते हो क्या ताकत कम है हांथो पे।

कब तक अपनी लाचारी को अपना हक बतलाओगे।
देर सवेर कभी तो खुद को सबसे नीचे पाओगे।

समय यही है सत्य यही है खुद पे तो शरमाओ अब।
कुछ तो खुद के दम पर भी हासिल कर दिखलाओ अब।

आरक्षण को हक़ मत समझो ये कम दिनों का नारा है।
अब वही बढ़ेगा जो लायक है ये सूत्र सभी को प्यार है।

सत्ता में भी आरक्षण कर दो फिर ये खेल सुहाना हो।
नए बहुत है उचक चुके अब राज्य धर्म पुराना हो।

क्यो आभास तुम्हारा सिथिल पड़ा क्या नज़रो में भी धोखा है।
सारी मर्यादाओ को तो लांघ चुके अब भी किसने क्या रोका है।

किस गीदड़ ताकत में तुम आगाज़ सभी कर जाते हो।
इस शांत स्वभाव को तुम भय हार मान कर जाते हो।

अगर जबाब मिला तो फिर किस दुनिया मे तुम जाओगे।
है कौन सहारा आरक्षण का हर हाल हमे ही पाओगे।

क्यों मेहनत से कतराते हो तुम क्या हाल रहेगा यही तुम्हारा।
मेहनत कर आरक्षण बिन जी कर भी जानो क्या हाल हमारा।

सब कुछ सह लेंगे पर आरक्षण अब सहन नही होगा
और जातिगत आरक्षण तो बिल्कुल वहन नही होगा।

हम आपस में ही क्यों लड़ते है क्या यही संस्कार हमारे है।
क्या भाई चारे वाली लाइन को हम पढ़ कर के विसारे है।

क्यों समझ नही पाते हम ओछी चाल नेताओ की।
खुद ही खून बह आते है अपने ही शहभाईयो की।

आज अगर आरक्षण ही अब जीत तुम्हारी बनता है।
तो तुम लिख लो मन मे अब हार तुम्हारी ये जनता है।