।। विजय-उम्मीद ।।



हारा हूं तो जीतूँगा भी प्रण तो बाँधे रहता हूँ।
अपनो से तो गिला हुई है पर उम्मीदें रखता हूँ।।

सबके मन का जान गया हूं अब तो होश ठिकाने है,
बने रहे जो अब तक साथी खोकर बात जताने है।।

ठोकर खाकर भी अपनो से निर्मल जल सा बहता हूँ,
अपनो से तो गिला हुई है पर उम्मीदें रखता हूँ।।

हर पल मन में दया लिया था फिर भी कठिन कहानी है, 
आते जाते सबको देखा मन की बात न जानी है।।

पीछे छुप कर वॉर करे सब बेसुध सा मैं रहता हूँ, 
अपनो से तो गिला हुई है पर उम्मीदें रखता हूँ।।

तुम ही तो थे खास मेरे तब अब क्या बात बतानी है,
सुनते हो तो सुन लेना अब मुह की तुमको खानी है।।

बहुत हो रहा दर्द दिलो में बात सभी की सहता हूँ,
अपनो से तो गिला हुई है पर उम्मीदें रखता हूँ।।

समझ रहा हु सब कुछ अब तो जीवन सिर्फ दिखावे का,
निष्छल जैसे शब्द नही है काम है सिर्फ छलावे का।।

रोते हँसते सब कुछ करते मन मे पीड़ा रखता हूँ, 
अपनो से तो गिला हुई है पर उम्मीदें रखता हूँ।।

कुछ भी कर लूं मन में लेकिन ध्यान उन्ही का रहता है,
बैरी बनकर जिसने मेरे ख्वाबों को भी छलता है।।

दुश्मन की तो बात निराली अपनो से भी डरता हूँ, 
अपनो से तो गिला हुई है पर उम्मीदें रखता हूँ।।

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